Thursday, March 18, 2010

प्रायश्चित

सामने माँ का पार्थिव शरीर पड़ा था,
और बेटा निःशब्द किसी मूर्ती सा खड़ा था,
फर्क था तो सिर्फ आंसुओं का
जो निरंतर बह रहे थे,
और बिना कुछ कहे ही सब कुछ कह रहे थे।
बेटा इसलिए नहीं रो रहा था
की माँ ज़िन्दगी से मुह मोड़ गयी थी,
मुझे अकेला छोड़ गयी थी
वो जानता है की मौत तो सिर्फ एक बहाना है,
एक दिन हम सबको जाना है
बल्कि इसलिए रो रहा है,
कि मेरी माँ ने जीवन में बाज़ार से,
कभी कुछ लाने के लिए नहीं कहा
कभी कुछ खाने के लिए नहीं कहा,
हर कमी को चुप चाप सहा
और मैं अनजान बन सब देखता रहा।
माँ खुद गीले में सोती है,
बच्चे को को सूखे में सुलाती है,
बच्चा रोये तो सारी रात बाँहों में झुलाती है,
बच्चों को मुस्कुराता देख माँ के नयन
कैसे ख़ुशी से फूल जाते हैं,
और बच्चे बड़े हो कर
कितनी आसानी से अपना फ़र्ज़ भूल जाते हैं।

जब कभी घर देर से आता था,
तो माँ को दरवाज़े पे खड़ा पता था,
माँ उसी वक्त मेरे लिए गरमा गर्म खाना पकती थी,
और मुझे खिलने के बाद ही
बचा खुचा खुद खाती थी।
एक बार जब मैं बीमार पड़ा
और बहुत तेज़ बुखार चढ़ा,
माँ कभी बातों से बहलाती - कभी पीठ सहलाती
कभी दावा कभी दुआ करते कितना रोई,
सारी रात जगी, एक पल भी नहीं सोयी।
और एक बार माँ का शुगर लेवल थोडा सा बढ़ा पाया था,
तो मुझे कितना गुस्सा आया था ,
माँ ने तो बस प्रसाद का एक पेंडा खाया था,
और उस दिन के बाद से मीठे को कभी हाथ नहीं लगाया था ।

और जिस दिन हमारी फैमिली डिनर पर जाती थी,
माँ घर पर अचार से रोटी खाती थी,
शुगर से बहुत घबराती थी।
हाँ मैंने माँ से किया था उस दिन दावा लाने का वादा,
लेकिन दावा की दुकान पर थी भीड़ बहुत ज्यादा,
बेटे का जन्मदिन है देर हो गयी तो मचल जायेगा,
शीशी में ज़रा सी दावा बची है
माँ का काम तो किसी न किसी तरह चल जायेगा।
माँ के न पैरों में जान न हाथ में छड़ी थी,
दिखाई कम देता था एक बार गिर पड़ी थी,
तब माँ ने पहली बार कहा था
"बेटा मुझे एक चश्मा ला दे"
कैसे भूलूँ माँ से किये हुए वो वादे,
अभी तो टाईम नहीं है ,
अगले हफ्ते जब छुट्टी ले कर
बीवी को शापिंग करने ले जाऊंगा,
तो माँ तुमारा चश्मा ज़रूर बनवाऊंगा।

और एक बार माँ और बीवी दोनों की साड़ी लेने बाज़ार गया,
तो वहां भी माँ की ममता के आगे हार गया,
बीवी एक महंगी साड़ी लेने के लिए अड़ गयी,
और जेब की रकम बीवी की साड़ी के लिए ही कम पड़ गयी,
माँ ने तब भी यही कहा था
"बेटा तू बहु को ही साड़ी दिला दे
मुझे कौन सा किसी पार्टी में जाना है ,
सारा दिन घर पर ही तो बिताना है "

और एक बार माँ ने कहा था
"बेटा भरोसा नहीं रहा , पता नहीं कब चली जाऊं,
सोचती हूँ एक बार हरिद्वार हो आऊं"
अगले साल चली जाना माँ
मैंने ये कह कर टाल दिया था,
और माँ को घर की रखवाली के लिए छोड़,
हिल स्टेशन पर 'विद फैमिली' डेरा डाल दिया था।

और एक बार माँ ने जब मेरी तरक्की के लिए व्रत रखा था,
और भगवान् से मन्नत मांगी थी उस दिन
मैंने अपनी निकृष्टता की हर सीमा लांघी थी,
मैंने कहा था माँ मैं शाम को जल्दी घर आऊंगा
और तुम्हारे लिए फल लाऊंगा,
लेकिन जैसे ही हुई शाम,
टकराए जाम से जाम
घर पहुंचा तो बहुत देर हो चुकी थी,
और माँ फलों के इंतज़ार में भूखी ही सो चुकी थी।

और जिस दिन मन्नत पूरी हुई
मुझे माँ के साथ मंदिर जाना था,
लेकिन दूसरी तरफ दोस्तों के साथ खाना खाना था,
मैंने उस दिन भी अपने पुत्र धर्म से नाता तोड़ दिया था,
और माँ के बूढ़े ज़र्ज़र शरीर को,
बसों में धक्के खाने के लिए,
भगवान् भरोसे छोड़ दिया था।

माँ के नाम कोई प्रोपर्टी नहीं थी,
और माँ का व्यवहार भी सख्त नहीं था,
शायद इसी लिए मेरे पास
माँ के लिए वक़्त नहीं था।
वो माँ जिसने नौ महीने गर्भ में रखा
अपने ही खून से छली गयी,
और ज़रूरतों का इंतज़ार करते करते चली गयी।

देखो देखो माँ का शरीर अब भी कुछ नहीं मांग रहा
चुप चाप सो रहा है ,
और वो बेटा किसी को क्या बताये
की वो क्यों रो रहा है,
अब तो केवल पश्चाताप के आंसू ही बहाऊंगा
और जिस माँ ने अपना सबकुछ दिया
उसे सिर्फ कन्धा ही दे पाउँगा ................... ।

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